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त्रिगुण, मन और कर्म१
त्रिगुण के सम्बन्ध में, तथा उच्चतम सात्त्विक साधना अपनी परिणति के समय अपनेको अतिक्रम करके जिस त्निगुणातीत स्थिति की ओर ले जाती है उसके सम्बन्ध में यह जो मूलभूत विचार है उसके प्रकाश में गीता ने कर्म का जो विश्लेषण किया है वह अभी पूर्ण नहीं हुआ है । किसी स्वयं-विकसनशील कर्म के पीछे, विशेषकर कर्मों के द्वारा जीव के अपना पूर्ण अध्यात्म-विकास साधित करने के पीछे जो प्रधान तत्त्व, जो अपरिहार्य शक्ति विद्यमान जती है वह है श्रद्धा, -- जिस सत्य के हमें दर्शन हुए हैं उसपर विश्वास करने, स्वयं वही बन जाने, उसे जानने जीवन में उतारने तथा कार्य-रूप में परिणत करने का संकल्प । परन्तु इसके साथ ही कुछ ऐसी मानसिक शक्तियाँ, कुछ करणोपकरण एवं अवस्थाएँ भी हैं जो कर्म के वेग, दिशा तथा स्वरूप का निर्धारण करने में सहायक होती हैं और अतएव वे इस आभ्यंतरिक साधना के पूर्ण रूप से समझने में महत्व रखती हैं । गीता पहले इन चीजों का संक्षिप्त मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करती है और फिर वह अपने उस महान् चरम सिद्धान्त को ओर अग्रसर होती है जो उसकी संपूर्ण शिक्षा की परिणति है, एक उच्चतम रहस्य है, आध्यात्मिक रूप से सब धर्मों के ऊपर उठ जाने तथा दिव्य परात्परता लाभ करने का रहस्य है । हमें उसके संक्षिप्त वर्णनों का अनुसरण करते हुए इन चीजों का निरूपण संक्षेप से ही करना होगा और विस्तार केवल उतना ही करना होगा जितना प्रधान विचार को पूर्ण रूप से हृदयंगम करने के लिए आवश्यक हो; क्योंकि ये गौण वस्तुएँ हैं, परन्तु फिर भी प्रत्येक अपने स्थान में तथा अपने प्रयोजन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है । त्रिगुण के विशिष्ट सांचे में ढली हुई इनकी जो क्रिया होती है उसी को हमें मूल के संक्षिप्त वर्णनों में से बाहर निकालकर प्रकट करना है; गुणों से परे इनमें से किसी की या प्रत्येक की परिणति का क्या स्वरूप होगा यह सामान्य त्निगुणातीत अवस्था के स्वरूप से स्वयमेव स्पष्ट हो जायगा ।
विषय के इस अंश की चर्चा अर्जुन के एक अंतिम प्रश्न के द्वारा आरम्भ की _____________ १. गीता १८,१-३६ ५१७ गयी है जिसमें वह पूछता है कि संन्यास और त्याग का क्या तत्त्व है तथा इनमें भेद क्या है । गीता ने जो इस महत्वपूर्ण भेद का राग पुनः-पुन: अलापा है, इसपर जो बारंबार बल दिया गया है उसका औचित्य परवर्ती भारतीय मन के उत्तरकालीन इतिहास के द्वारा यथेष्ट रूप से प्रमाणित होता है, क्योंकि वहाँ हम देखते हैं कि भारतीय मन इन दो अत्यंत विभिन्न चीजों में लगातार गड़बड़- घोटाला करता आया है और गीता ने जिस भी प्रकार के कर्म की शिक्षा दी है उसे इस रूप में नीचा दिखाने की इसकी प्रबल प्रवृत्ति रही है कि वह, अधिक-से-अधिक, संन्यास के परम नैष्कर्म्य का प्रारम्भिक पग मात्र है । सच पूछो तो, जब लोग त्याग की बात करते हैं तब वे इस शब्द का जो अर्थ समझते हैं या कम-से-कम इसके जिस अर्थ पर वे बल देते हैं, वह सदा जगत् का बाह्य त्याग ही होता है, जब कि गीता का विचार इसके नितान्त विपरीत है और वह यह कि वास्तविक त्याग की भित्ति है जगत् में कर्म करना और जीवन यापन करना न कि जगत् से भागकर मठ-मंदिर, गुहा-कंदरा या गिरि-शृंग की शरण लेना । वास्तविक त्याग है कामना को त्यागकर कर्म करना और वास्तविक संन्यास भी यही है ।
निःसंदेह, सात्त्विक आत्म-साधना की मोक्षजनक क्रिया त्याग की भावना से ओतप्रोत होनी चाहिए--यह एक अपरिहार्य तत्त्व है : परन्तु वह त्याग क्या है और त्याग की आत्मिक भावना कैसी होनी चाहिए ? जगत् में कर्म का त्याग नहीं, कोई बाह्य तपस्या या भोग के ऊपरी त्याग का कोई बाह्य आडंबर नहीं, बल्कि प्राणिक कामना और अहं का वर्जन वा 'त्याग,' वासनात्मा, अहं-।नियन्त्रित मन तथा राजसिक प्राण-प्रकृति के पृथक् वैयक्तिक जीवन का पूर्ण विवर्जन, 'संन्यास।' योग के शिखरों पर आरोहण करने के लिए यही सच्ची शर्त है, भले ही वह आरोहण निर्व्यक्तिक आत्मा एवं ब्राह्मी एकता के द्वारा हो या विश्वव्यापी वासुदेव के द्वारा हो अथवा, आभ्यंतरिक रूप से, परम पुरुषोत्तम के भीतर हो । अधिक रूढ़ एवं शास्त्रीय दृष्टि से देखा जाय तो मनीषिगण की प्रचलित भाषा में 'संन्यास' का अर्थ है कर्मों का भौतिक संन्यास या भौतिक परिवर्जन : मानसिक और आध्यात्मिक 'त्याग' को ज्ञानी जनों ने त्याग का नाम दिया है, अर्थात् 'त्याग' का मतलब है अपने कर्मों के फल के प्रति, स्वयं कर्म के प्रति या उसके व्यक्तिगत आरम्भ या उसकी राजसिक प्रेरणा के प्रति समस्त आसक्ति का पूर्ण परित्याग--गीता के अनुसार संन्यास और त्याग में यही भेद है । इस अर्थ में संन्यास नहीं त्याग ही श्रेयस्कर मार्ग है । जिस चीज का त्याग करने की आवश्यकता है वह काम्य कर्म नहीं बल्कि कामना है जो कर्म को वह काम्य या कामनात्मक रूप दे देती है । कर्मों के प्रभु के विधान में कर्म का फल प्राप्त हो सकता है, किन्तु कर्म करने के ५१८ पुरस्कार या उसकी शर्त के रूप में फल की कोई अहंपूर्ण मांग बिलकुल नहीं होनी चाहिए । अथवा यह भी हो सकता है कि फल बिलकुल मिले ही नहीं और फिर भी हमें एक 'कर्तव्य कर्म' के रूप में कर्म करना ही चाहिए, एक ऐसे कर्म के रूप में जिसकी मांग हमारे अंतःस्थ प्रभु हमसे करते हैं । सफलता और विफलता उन्हीं के हाथ में है और इन्हें वे अपने सर्वज्ञ संकल्प तथा प्रयोजन के अनुसार निर्धारित करेंगे । इसमें संदेह नहीं कि अन्त में कर्म का, कर्म मात्र का त्याग करना होगा, परन्तु वह त्याग बाह्य रूप में निवृत्ति, निश्चलता या निष्क्रियता के द्वारा नहीं करना होगा, बल्कि आध्यात्मिक रूप में अपनी सत्ता के उन प्रभु के प्रति करना होगा जिनकी शक्ति से कोई भी कर्म निष्पन्न किया जा सकता है । 'हम ही कर्ता हैं', इस मिथ्या विचार का त्याग करना होगा; क्योंकि वास्तव में विश्वऊर्जा ही हमारे व्यक्तित्व और अहंभाव के द्वारा कर्म करती है । गीता की शिक्षा के अनुसार, अपने सब कर्मों को आध्यात्मिक रूप से प्रभु तथा उनकी शक्ति को सौंप देना ही सच्चा संन्यास है ।
फिर भी यह प्रश्न उठता है कि हमें कौन-कौन से कर्म करने चाहियें ? जो लोग संपूर्ण बाह्य त्याग का पक्ष लेते हैं वे भी इस गहन विषय में एकमत नहीं । कुछ लोग यह कहेंगे कि सभी कर्मों को हमें अपने जीवन से बाहर निकाल फेंकना चाहिए, मानों ऐसा करना संभव हो । परन्तु जबतक हम इस देह में हैं तथा जीवित हैं तबतक ऐसा करना संभव नहीं; न ही मुक्ति इस बात में हो सकती है कि हम अपनी सक्रिय सत्ता को समाधि के द्वारा लोष्ट और पाषाण की-सी निर्जीव निश्चलता में परिणत कर दें । समाधि की निश्चल-नीरवता से भी इस समस्या का समाधान नहीं होता, क्योंकि ज्योंही शरीर के अन्दर फिर से सांस चलने लगता है, त्योंही हम एक बार पुन: कर्म-क्षेत्र में आ पड़ते हैं और आध्यात्मिक सुषुप्ति के द्वारा हमने जो यह मुक्ति प्राप्त की थी उसके शिखरों से एक बार फिर नीचे लुढ़क आते हैं । परन्तु सच्ची मुक्ति, अहं के आभ्यंतरिक त्याग तथा पुरुषोत्तम के साथ ऐक्य-लाभ के द्वारा उपलब्ध मुक्ति हर प्रकार को अवस्था में स्थिर बनी रहती है, वह इस लोक में या इसके बाहर किंवा समस्त लोकों में या समस्त लोकों-के बाहर स्थिर बनी रहती है, वह स्वयं-स्थित है, 'सर्वथा वर्तमानोऽपि,' वह नैष्कर्म्य या कर्म पर निर्भर नहीं करती । तो फिर वे कर्म कौन से हैं जो हमें करने ही होंगे ? संभवत: एक पूर्ण संन्यासवादी का उत्तर यह होगा कि ऐच्छिक कर्मों के रूप में केवल भिक्षाटन, भोजन और ध्यान को ही स्वीकार करना होगा और वैसे इनके अतिरिक्त शरीर की केवल आवश्यक चेष्टाओं को ही अंगीकार करना होगा--गीता ने इस उत्तर का उल्लेख नहीं किया है, संभवत: यह उत्तर उस ५१९ समय पूर्ण रूप से प्रचलित नहीं था । परन्तु स्पष्ट ही, एक अधिक उदार तथा व्यापक समाधान यह था कि तीन अत्यंत सात्त्विक कार्यों, यज्ञ, दान और तप को जारी रखना ही चाहिए । और गीता कहती है कि ये कार्य अवश्यमेव करने चाहियें, क्योंकि ये ज्ञानियों को पवित्र करते हैं । परन्तु अधिक व्यापक दृष्टि से तथा इन तीन कार्यों को इनके व्यापकतम अर्थ में समझते हुए यह कहा जा सकता है कि अवश्य करने योग्य कर्म वह है जो यथायथ रूप से नियंत्रित कर्म, 'नियतं कर्म', हो अर्थात् जो शास्त्र के द्वारा, यथार्थ ज्ञान, यथार्थ कर्म, यथार्थ जीवन-यापन की विद्या एवं कला के द्वारा या मूल स्वभाव के द्वारा नियंत्रित हो, 'स्वभाव-नियतं कर्म', अथवा अंतत: और श्रेष्ठत: जो हमारे अन्दर और ऊपर अवस्थित भगवान् के संकल्प के द्वारा नियंत्रित हो । इनमें से अन्तिम ही मुक्त पुरुष का वास्तविक तथा एकमात्र कर्म है, 'मुक्तस्य कर्म ।' इन कर्मों का त्याग करना यथायथ गति नहीं है--यह बात गीता ने अन्त में स्पष्ट और तीव्र रूप में कह दी है, 'नियतस्य तु संन्यास: कर्मणो नोपपधते ।' इस प्रकार का त्याग ही सच्ची मुक्ति का सक्षम साधन है--इस अज्ञानपूर्ण विश्वास के साथ कर्मों का त्याग कर देना तामसिक त्याग है । हम देखते हैं कि कर्मों के त्याग में भी गुण उसी प्रकार हमारा पीछा करते हैं जिस प्रकार कि कर्मों के बीच । अकर्म में आसक्ति रखते म हुए, 'संग: अकर्मणि', कर्मों का त्याग करना भी उसी प्रकार एक तामसिक त्याग होगा । और इन्हें इस कारण त्यागना कि ये दु:खदायक हैं या शारीरिक कष्ट तथा मानसिक उद्वेग के हेतु हैं अथवा इस भाव से त्यागना कि सब कुछ ही व्यर्थ और आत्मा के लिए संतापजनक है, राजसिक त्याग है और यह उच्च आध्यात्मिक फल नहीं प्रदान करता; यह भी सच्चा त्याग नहीं । यह बौद्धिक निराशावाद या प्राणिक क्लान्ति का परिणाम है; इसका मूल अहंकार में है । इस स्वार्थ-मुखी नीति के द्वारा नियंत्रित त्याग से किसी प्रकार की भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती ।
त्याग का सात्त्विक सूत्र कर्म से पीछे हटना नहीं बल्कि व्यक्तिगत मांग एवं उसके मूल में रहनेवाले अहं-तत्त्व से पीछे हटना है । इसका मतलब है यथायथ जीवन-यापन के विधान के द्वारा या मूल प्रकृति, उसके ज्ञान एवं उसके आदर्श के द्वारा, अपने-आपमें तथा स्वानुभूत सत्य में उसकी 'श्रद्धा' के द्वारा कर्म करना, कामना से प्रेरित होकर नहीं । अथवा, एक उच्चतर आध्यात्मिक स्तर पर कर्म प्रभु के संकल्प से प्रेरित होते हैं और वे योगयुक्त मन के साथ, कर्म या उसके फल के प्रति किसी व्यक्तिगत आसक्ति के बिना संपन्न किये जाते हैं । समस्त कामना का, समस्त स्वार्थदर्शी अहंकारमय चुनाव और आवेग का तथा अन्त में ५२० संकल्प के उस अति सूक्ष्मतर अहंभाव का पूर्ण परित्याग करना आवश्यक है जो या तो यह कहता है कि '' कर्म मेरा है, मैं ही कर्ता हूँ'', या यहाँतक कि ''कर्म परमेश्वर का है, पर कर्ता मैं हूँ ।'' किसी प्रिय, काम्य, लाभजनक या सफलता-पूर्ण कर्म के प्रति कोई भी आसक्ति नहीं होनी चाहिए और न यह उचित है कि उसके ऐसा होने के कारण ही उसे संपन्न किया जाय; किन्तु इस प्रकार का कर्म भी करना ही होगा ,--पूर्ण रूप से, नि:स्वार्थ भाव से तथा आत्मा की अनुमति के सहित करना होगा,--पर केवल तभी जव कि वह हमारे ऊपर तथा अन्दर से आदिष्ट कर्म हो, 'कर्तव्यं कर्म' हो । किसी अप्रिय, अकाम्य या अतृप्तिकर कर्म के प्रति या जो कर्म अपने साथ दु:ख, विपदा, विषम अवस्थाएँ एवं अनिष्ट परिणाम लाता है या ला सकता है उसके प्रति कोई घृणा नहीं होनी चाहिए; क्योंकि वह भी जब एक कर्तव्य-कर्म हो, 'कर्तव्यं कर्म' हो, तब उसे पूर्ण रूप से, निःस्वार्थ भाव से तथा उसकी आवश्यकता एवं प्रयोजन को गहराई के साथ समझते हुए अंगीकार करना होगा । ज्ञानी मनुष्य कामनात्मक सत्ता की जुगुप्साओं तथा द्विविधाओं को तज देता है और जो साधारण मानवीय बुद्धि क्षुद्र, व्यक्तिगत और रूढ़ मानदंडों के द्वारा या किसी अन्य प्रकार के संकीर्ण आदर्शों के द्वारा नापती है उसके संशयों को वह निकाल फेंकता है । पूर्ण सात्त्विक मन के प्रकाश में तथा अन्तरात्मा को निर्व्यक्तिकता की ओर, परमेश्वर, विश्वगत और सनातन सत्ता की ओर उठानेवाले आन्तरिक त्याग की शक्ति के साथ वह अपनी प्रकृति के उच्च-तम आदर्श धर्म का अनुसरण करता है अथवा उसकी निगूढ़ आत्मा में कर्मों के अधीश्वर का जो संकल्प विद्यमान है उसीका वह अनुवर्तन करता है । वह किसी व्यक्तिगत फल या किसी ऐहिक पुरस्कार के लिए अथवा सफलता, लाभ या परिणाम के प्रति किसी आसक्ति के साथ कर्म नहीं करता : न ही वह अदृश्य परलोक में किसी प्रकार का फल प्राप्त करने के लिए कर्म करता है, न दूसरे जन्मों में या हमसे परे के लोकों में किसी ऐसे पुरस्कार की याचना करता है जिसके लिए अपरिपक्व धार्मिक बुद्धिवाला मनुष्य लालायित रहता है । इस लोक में या अन्य किन्हीं लोकों में, इस जीवन में या अन्य किसी जीवन में इष्ट, अनिष्ट और मिश्रित इन तीन प्रकार के जो फल मिलते हैं वे कामना तथा अहं के दासों के लिए हैं; मुक्त आत्मा इनमें लिप्त नहीं होता । जो मुक्त कर्मी आभ्यंतरिक संन्यास के द्वारा अपने कर्मों को महत्तर शक्ति के प्रति उत्सर्ग कर चुका है वह कर्म से मुक्त है । कर्म वह अवश्य करेगा, क्योंकि किसी-न-किसी प्रकार का कर्म, वह चाहे कम हो या अधिक, छोटा हो या बड़ा, देहधारी जीव के लिए अनिवार्य, स्वाभाविक एवं समुचित ही है.--कर्म जीवन के दिव्य विधान का अंग है, यह आत्मा ५२१ की उच्च क्रियाशक्ति का पक्ष है । त्याग का सार, सच्चा त्याग, सच्चा संन्यास कोई गतानुगतिक नियम का अनुसरण करनेवाला कर्मत्याग नहीं है, बल्कि वह है आत्मा की निष्कामता, मन की नि:स्वार्थता, अहंभाव को अतिक्रम कर मुक्त, निर्व्यक्तिक एवं आध्यात्मिक प्रकृति में प्रतिष्ठित होना । इस आभ्यंतरिक त्याग का भाव ही सात्त्विक साधना की उच्चतम परिणति की सर्वप्रथम मानसिक शर्त है ।
इसके आगे गीता सांख्य-दर्शन के अनुसार कर्म-सिद्धि के पाँच कारणों या अनिवार्य साधनों की चर्चा करती है । ये पाँच इस प्रकार हैं पहला 'अधिष्ठान', अर्थात् देह, प्राण और मन का ढांचा जो प्रकृति के अन्दर जीव का आधार या अवस्थानभूमि है, उसके बाद है 'कर्त्ता, तीसरा है 'करण', अर्थात् प्रकृति के विविध करणोपकरण, चौथा है 'चेष्टा:', अर्थात् अनेक प्रकार के प्रयत्न जो कर्म-शक्ति का गठन करते हैं, और अंतिम है 'दैवम्' या दैव, अर्थात् मानवीय कर्तृ त्व से, प्रकृति की गोचर कर्म-पद्धति से भिन्न शक्ति या शक्तियों का प्रभाव, वे शक्तियाँ इनके पीछे रहकर कर्म को संशोधित करती हैं तथा कर्म और कर्मफल के नियमानुसार फल का विधान करती हैं । इन पांच तत्वों के परस्पर-संयोगों से ही कर्म के सब निमित्त-कारण गठित होते हैं; इस प्रकार, मनुष्य अपने मन, शरीर और वाणी से जो कोई भी कर्म करता है उसका रूप-स्वरूप और परिणाम इन्हीं के द्वारा निर्धारित होते हैं ।
साधारणत: हमारे स्थूल व्यक्तिगत अहं को ही कर्ता समझा जाता है, पर यह समझ उस बुद्धि की मिथ्या धारणा है जिसे ज्ञान नहीं प्राप्त हुआ है । देखने में तो अहं ही कर्ता है, पर अहं और इसका संकल्प प्रकृति की गढ़ी हुई चीजें हैं, उसी के यंत्र हैं जिन्हें अज्ञानपूर्ण बुद्धि भ्रांतिवश हमारी आत्मा से एकमय समझ लेती है, ये मानव-कर्म के भी एकमात्र निर्धारक नहीं हैं, कर्म की दिशा और उसके फल का निर्धारण करना तो दूर रहा । जब हम अहं से मुक्त हो जाते हैं तो हमारी पीछे की वास्तविक आत्मा, निर्व्यक्तिक और विश्वगत आत्मा सामने आ जाती है, और विश्वात्मा के साथ अपने एकत्व के साक्षात्कार में वह देखती है कि विश्व-प्रकृति ही कर्म की कर्त्री है और उसके पीछे अवस्थित भगवत्संकल्प विश्व-प्रकृति का स्वामी है । जबतक हमें यह ज्ञान नहीं प्राप्त होता केवल तभी-तक हम इस भाव से बंधे रहते हैं कि अहं और उसका संकल्प ही कर्ता हैं और तभी-तक हम शुभाशुभ कर्म करते तथा अपनी तामसिक, राजसिक या सात्त्विक प्रकृति की तुष्टि प्राप्त करते हैं । परन्तु एक बार जब हम इस महत्तर ज्ञान में वास करने लगते हैं तब कर्म के स्वरूप और फलाफल से आत्मा के स्वातंत्र्य में कोई अन्तर ५२२ नहीं पड़ सकता । बाहर से वह कर्म कुरुक्षेत्र के इस महान् युद्ध और संहार जैसा घोर कर्म भी हो सकता है; परन्तु मुक्त पुरुष उस संघर्ष में भाग भले ही ले और इन सब प्रजाओं का बध भले ही कर डाले फिर भी वह किसी का वध नहीं करता और अपने कर्म से बद्ध नहीं होता, क्योंकि वह कर्म सब लोकों के महेश्वर का होता है और उन्हींने अपने गुप्त सर्वशक्तिमय संकल्प में पहले से ही इन सब सेनाओं का वध कर रखा होता है । यह संहार-कर्म आवश्यक ही था--इसलिए कि मानव-जाति एक अन्य सृष्टि तथा नूतन उद्देश्य की ओर अग्रसर हो सके, मानों अपने अतीत कर्म की अग्नि में ही अधर्म, अत्याचार और अन्याय से छुटकारा पा सके और धर्म के राज्य की ओर आगे बढ़ सके । मुक्त पुरुष को जो काम सौंपा जाता है उसे वह अपनी आत्मा में विश्वात्मा के साथ एक होकर एक जीवंत यंत्न के रूप में संपन्न करता है । और यह जानते हुए कि यह सब अवश्यंभावी है, बाह्य प्रतीति से परे दृष्टिपात करते हुए वह अपने लिए नहीं वरन् परमेश्वर और मनुष्य के लिए तथा मानवीय और वैश्व व्यवस्था१ के लिए कर्म करता है, वास्तव में वह स्वयं कर्म नहीं करता बल्कि अपने कार्यों तथा उनके परिणाम में भागवत शक्ति की उपस्थिति और प्रभाव को सचेतन रूप से अनुभव करता है । उसे इस बात का ज्ञान होता है कि पराशक्ति ही उसके मन-प्राण-शरीररूपी आधार, 'अधिष्ठान', के अन्दर एकमात्र कर्त्री के रूप में दैव-नियत कर्मों को संपन्न कर रही है, और वह दैव वास्तव में दैव नहीं, कोई यान्त्रिक कर्म-विधान नहीं बल्कि एक ज्ञानमय सर्वदर्शी संकल्प है जो मानव-कर्म के पीछे क्रियाशील है । यह ''घोर कर्म" जिसकी धुरी पर गीता की संपूर्ण शिक्षा केन्द्रित है एक ऐसे कर्म का चरम दृष्टान्त है जो देखने में अमंगल, 'अकुशलम्' प्रतीत होता है, यद्यपि इसके बाह्य रूप के परे महान् कल्याण निहित है । भगवान् के द्वारा नियुक्त व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह जगत् को इसके लक्ष्य की ओर सम्यक् धारित रखने के लिए, 'लोकसंग्रहार्थम्', निर्वैयक्तिक भाव से इस कर्म को संपन्न करे, किसी वैयक्तिक उद्देश्य या कामना से नहीं बल्कि इसलिए करे कि यह भगवदर्पित सेवा है ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कर्म ही एकमात्र महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं है; जिस ज्ञान के आधार पर हम कर्म करते हैं वह आध्यात्मिक दृष्टि से उसमें अत्यधिक अन्तर ले आता है । गीता कहती है कि तीन चीजें हैं जो कर्मों की मानसिक प्रेरणा का गठन करती हैं । वे हैं-हमारे संकल्प का आधारभूत ज्ञान, ज्ञान का विषय और ज्ञाता; और ज्ञान के अन्दर त्रिगुण का व्यापार सदा ही आ घुसता ____________ १. वैश्व व्यवस्था का प्रश्न उठता ही है, क्योंकि मानवजाति के बीच असुर की विजय का अर्थ होता है उसी हद तक विश्व-शक्तियों के द्वंद्व में असुर की विजय । ५२३ हे । त्रिगुण के इस व्यापार के कारण ही ज्ञातवस्तु-विषयक हमारी दृष्टि में तथा ज्ञाता की अपना कर्म करने की भावना में कितना-कुछ अन्तर पड़ जाता है । तामसिक अज्ञानपूर्ण ज्ञान वस्तुओं को देखने का एक क्षुद्र एवं संकीर्ण, मंद या जड़ाग्रही तरीका है जिसमें कि जगत् का या कृत कर्म या उसके क्षेत्र का अथवा कर्म या उसकी परिस्थितियों का वास्तविक स्वरूप जानने के लिए हमारे अन्दर दृष्टि नहीं होती । तामसिक मन वास्तविक कार्य-कारण पर दृष्टिपात नहीं करता, बल्कि किसी एक क्रिया या कार्यपरिपाटी में तीव्र आसक्ति के साथ तल्लीन हो जाता है, वैयक्तिक कर्म का जो छोटा-सा अंश उसकी आँखों के सामने होता है उसे छोड्कर वह और कुछ भी नहीं देख सकता और सच पूछो तो वह यह भी नहीं जानता कि वह क्या कर रहा है, बल्कि वह एक अंधे की न्याई प्राकृतिक प्रवृत्ति को उसके कर्म के द्वारा ऐसे परिणामों को उत्पन्न करने देता है जिनके सम्बन्ध में स्वयं उसे कोई धारणा, पूर्वदृष्टि या व्यापक समझ नहीं होती । राजसिक ज्ञान वह है जो इन सब भूतों में अनेकानेक वस्तुओं को केवल उनके पृथक्-पृथक् रूप तथा नानाविध व्यापार पर ही दृष्टि रखते हुए देखता है और जो न तो एकत्व का सच्चा सूत्र ढूंढ सकता है और न अपने संकल्प तथा कर्म में यथार्थ सुसंगति स्थापित कर सकता है, बल्कि आभ्यंतरिक तथा पारिपार्श्विक प्रेरणाओं और शक्तियों की पुकार के प्रत्युत्तर में अहं और कामना की प्रवृत्ति का तथा अपनी बहुमुखी अहम्मय इच्छाशक्ति और नानाविध एवं मिश्रित प्रेरकभाव की क्रिया का अनुसरण करता है । यह ज्ञान ज्ञान के, प्राय: विशृंखल ज्ञान के कुछ ऐसे खंडों का अस्तव्यस्त मिश्रण होता है जिन्हें मन हमारे अर्द्ध-ज्ञान और अर्द्ध-अज्ञान के संकर में से किसी प्रकार का रास्ता बनाने के लिए बलपूर्वक संयुक्त किये होता है । अथवा यह एक चंचल राजसिक नानामुखी क्रिया होती है जिसमें न तो कोई स्थिर नियामक उच्चतर आदर्श होता है और न ही ज्योति और शक्ति का कोई स्व-अधिकृत विधान । इसके विपरीत, सात्त्विक ज्ञान सत्ता को इन सब विभाजनों के अन्दर एक ही अविभाज्य अखंड सत्, सब भूतभावों के अन्दर एक ही अविनाशी सत्ता के रूप में देखता है; यह उसके कर्म के नियम को तथा सत्ता के समग्र उद्देश्य के साथ किसी विशिष्ट कर्म के सम्बन्ध को अधिकृत करता है; यह संपूर्ण प्रक्रिया के प्रत्येक क्रम को उसके समुचित स्थान में विन्यस्त करता है । ज्ञान के सर्वोच्च शिखर पर यह दृष्टि जगत् में, इन सब अनेकानेक भूतों में अवस्थित एक आत्मा का, सब कर्मों के एक ही स्वामी का ज्ञान बन जाती है, यह इस ज्ञान का रूप धारण कर लेती है कि विश्व की शक्तियाँ भगवान् की ही अभिव्यक्तियाँ हैं और स्वयं कर्म भी मनुष्य, उसके जीवन एवं मूल स्वभाव में होनेवाली ५२४ उनके परम संकल्प और ज्ञान की क्रियाएँ हैं । वैयक्तिक संकल्प पूर्ण रूप से सचेतन एवं ज्ञानदीप्त हो उठता है, आध्यात्मिक दृष्टि से प्रबुद्ध हो जाता है, एकमेव में निवास करने तथा कर्म करने और उनके परम आदेश का उत्तरोत्तर पूर्णता के साथ पालन करने लगता है, मानव-देह में उनकी ज्योति और शक्ति का एक अधिकाधिक निर्दोष यंत्र बनता जाता है । परमोच्च मुक्त कर्म की स्थिति सात्त्विक ज्ञान की इस पराकाष्ठा के द्वारा ही प्राप्त होती है ।
इसी प्रकार, तीन और चीजें हैं जो मिलकर किसी कर्म को धारण करती तथा सम्भव बनाती हैं, वे हैं कर्ता, करण और आचरित क्रिया । यहाँ भी गुणों का भेद ही इन तत्त्वों में से प्रत्येक का स्वरूप निर्धारित करता है । सात्त्विक मन, जो सदैव यथायथ समस्वरता और यथार्थ ज्ञान की खोज करता है, सात्त्विक मनुष्य का प्रधान करण होता है और शेष सारी मशीनरी का परिचालन करता है । कामनात्मा के द्वारा समर्पित कामनामय संकल्प राजसिक कर्मी का प्रधान करण होता है । भौतिक मन और स्थूल प्राणिक प्रकृति की अज्ञ प्रेरणा या अनालो-कित प्रवृत्ति तामसिक कर्मी की मुख्य करण-शक्ति है । मुक्त व्यक्ति का करण होती है महत्तर आध्यात्मिक ज्योति और शक्ति जो उच्चतम सात्त्विक बुद्धि से अत्यधिक उच्चतर है, यह करण उसके अन्दर अतिभौतिक केंद्र से एक व्यापक अवतरण के द्वारा कार्य करता है तथा पवित्नीकृत और ग्रहणशील मन, प्राण और शरीर को अपनी शक्ति की निर्मल प्रणालिका के रूप में प्रयुक्त करता है ।
जो कर्म सहज-प्रेरणाओं, आवेगमय प्रवृत्तियों तथा दृष्टिशून्य धारणाओं का यंन्त्रवत् अनुसरण करते हुए, विमूढ़, भ्रांत और अज्ञ मन के साथ किया जाता है और जिसमें शक्ति या सामर्थ्य का अथवा अंध दुष्प्रयुक्त प्रयत्न की क्षति एवं अपव्यय का किंवा आवेग, प्रयास या परिश्रम के पूर्ववर्ती कारण और भावी फल तथा यथायथ अवस्थाओं का कुछ भी विचार नहीं किया जाता, वह कर्म तामसिक होता है । जिस कर्म को मनुष्य कामना के वशीभूत होकर केवल कर्म और उसके प्रत्याशित फल पर ही दृष्टि जमाये हुए या अपने कर्मगत व्यक्तित्व के सम्बन्ध में अहंमूलक भाव रखते हुए संपन्न करता है वह राजसिक कर्म है, वह अपरिमित प्रयत्न एवं तीव्र परिश्रम के साथ तथा अपनी काम्य वस्तु की प्राप्ति के लिए व्यक्तिगत संकल्प के अत्यंत कृच्छ्र आयास-प्रयास के द्वारा किया जाता है । जिस कर्म को मनुष्य शान्त भाव से, बुद्धि और ज्ञान के निर्मल प्रकाश में, न्याय्य या कर्तव्य कर्म के सम्बन्ध में या किसी आदर्श की मांग के विषय में एक निर्वैयक्तिक भावना को लेकर सम्पन्न करता है, जिसे वह इस भाव से करता है कि यह एक करणीय कर्म है भले ही इस लोक में या किसी अन्य लोक में उसे इसका कोई भी फल क्यों ५२५ न प्राप्त हो, वह सात्त्विक कर्म है । वह बिना आसक्ति के, कर्म के उत्साह-जनक या विरक्तिजनक रूप के प्रति कोई रुचि या अरुचि न रखते हुए, केवल अपनी तर्कणा और न्याय-भावना की संतुष्टि के लिए तथा विशद बुद्धि, प्रदीप्त संकल्प, शुद्ध एवं नि:स्वार्थ मन और उच्च एवं नित्यतृप्त आत्मा की संतुष्टि के लिए किया जाता है । सच की चरम परिणति की सीमा पर यह रूपांतरित होकर एक उच्चतम निर्वैयक्तिक कर्म बन जायगा जो पहले की तरह बुद्धि के द्वारा नहीं बल्कि हमारी अंत:स्थ आत्मा के द्वारा आदिष्ट होगा, एक ऐसा कर्म बन जायगा जो प्रकृति के परमोच्च धर्म के द्वारा प्रेरित होगा, निम्न अहं और उसके हलके या भारी बोझ से मुक्त होगा, यहाँतक कि सर्वोत्तम सम्मति, उत्कृष्टतम कामना, शुद्धतम व्यक्तिगत संकल्प या उच्चतम मानसिक आदर्श के सीमाबंधनो से भी विमुक्त होगा । वहाँ इनमें से कोई भी बाधा नहीं रहेगी; इनके स्थान पर प्रतिष्ठित होगा एक विशद आध्यात्मिक आत्म-ज्ञान और प्रकाश, कर्म करनेवाली निर्भ्रांत शक्ति का तथा जगत् के लिए और जगदीश्वर के लिए किये जाने योग्य कर्म का एक अलंध्य अंतरंग अनुभव ।
तामसिक कर्त्ता वह है जो वस्तुत: कर्म में चित्त नहीं लगाता, बल्कि यांत्रिक मन से कर्म करता है, अथवा साधारण जनता के अत्यंत असंस्कृत विचार का अनुसरण करता है, सामान्य ढर्रे पर चलता रहता है या अंध भ्रांति और पूर्व-ग्रह में अत्यासक्त होता है । वह मूढ़ता पर अड़ा रहता है, भ्रांति पर दृढ़ाग्रह करता है और अपने अज्ञानमय कर्म पर मूर्खतापूर्ण गर्व करता है, उसके अन्दर संकीर्ण और कुटिल धूर्तता सच्ची बुद्धि का स्थान ले लेती है; जिन लोगों से उसका वास्ता पड़ता है उनके प्रति, विशेषकर अपनेसे अधिक बुद्धिमान् एवं श्रेष्ठ लोगों के प्रति उसके अन्दर मूढ़ एवं धृष्टतापूर्ण घृणा होती है । जड़तापूर्ण आलस्य, मंदता, दीर्घसूत्रता, शिथिलता, उत्साह या सद्हृदयता का अभाव उसके कर्म के लक्षण होते हैं । तामसिक मनुष्य साधारणत: कर्म करने में मन्थर, मंदगति और सहज-विषादी होता है, यदि कोई कार्य उसके सामर्थ्य, प्रयत्न या धैर्य पर जोर डालता है तो वह उसे शीघ्र ही छोड़ देने के लिए तैयार रहता है । उधर, राजसिक कर्ता वह होता है जो कर्म में आतुरतापूर्वक आसक्त रहता है, उसे जल्दी से समाप्त करने पर तुला होता है, फल, पुरस्कार और परिणाम के लिए तीव्र रूप से उत्कंठित रहता है, हृदय से लोभी और मन से अपवित्र होता है, जिन साधनों का वह प्रयोग करता है उनमें वह प्रायः उग्र, क्रूर और पाशविक होता है । जबतक उसे अपने अभीष्ट की प्राप्ति होती रहती है, उसकी कामना-वासना की पूर्ति तथा उसके अहं की मांगों का समर्थन होता रहता है तबतक वह ५२६ इस बात की कुछ परवा नहीं करता कि वह किसे हानि पहुँचाता है या दूसरों की कितनी हानि करता है । सफलता में वह हर्ष के मारे फूला नहीं समाता, विफलता में वह बुरी तरह से व्यथित और आहत होता है । सात्त्विंक कर्ता इस सब आसक्ति, इस अहंता, इस उग्र बल या आवेशात्मक दुर्बलता से मुक्त होता है; उसका मन एवं इच्छाशक्ति ऐसी होती है जो सफलता से फूल नहीं जाती, विफलता से विषण्ण नहीं होती; जो कर्म करना होता है उसमें वह दृढ़ निर्वैयक्तिक संकल्प, शान्त सदुद्योग या उच्च, शुद्ध, निःस्वार्थ उत्साह से पूर्ण होती है । सत्त्व की चरम रेखा पर और उसके परे यह संकल्प, उद्योग और उत्साह आध्यात्मिक तपस् की स्वयं-स्फूर्त क्रिया बन जाते हैं और अन्त में तो ये एक उच्चतम आत्मबल, साक्षात् भगवत्-शक्ति, मानव-यंत्न में दैवी शक्ति की बलशाली और दृढ़-स्थिर गति, द्रष्टृ संकल्प एवं विज्ञानमय मनीषा के स्वयं सुनिश्चित पग और इसके साथ ही मुक्त प्रकृति के कर्मों में स्वतंन्त्र आत्मा का विशाल आनंद बन जाते हैं ।
सज्ञान संकल्प से युक्त बुद्धि एक मानुषी संपदा है और यह मनुष्य के अन्दर जिस रूप में या जितनी मात्रा में होती है उसीके अनुसार उसमें कार्य करती है और उसीके अनुसार ही यह मनुष्य के मन की भाँति यथायथ या विकृत, आच्छन्न या आलोकित, संकीर्ण और क्षुद्र या विशाल एवं व्यापक होती है । उसकी प्रकृति की बुद्धि-शक्ति, 'बुद्धि' ही उसके लिए कर्म का चुनाव करती है अथवा बहुधा .यह उसकी जटिल सहजात प्रेरणाओं, प्रवृत्तियों, विचारों और कामनाओं के अनेक सुझावों में से किसी एक या दूसरे का समर्थन करती है तथा उसे अनुमति प्रदान करती है । यही उसके लिए युक्त या अयुक्त, कर्तव्य या अकर्तव्य, धर्म या अधर्म का निर्णय करती है । और 'धृति', अर्थात् संकल्प की दृढ़ता मानसिक प्रकृति की वह अनवच्छिन्न शक्ति है जो कर्म को धारण करती तथा उसे संगति और दृढ़ता प्रदान करती है । यहाँ भी त्रिगुण का प्रभाव देखने में आता है । तामसिक बुद्धि एक मिथ्या, अज्ञ, तमसाच्छन्न करण है जो हमें सब चीजों को मलिन और भ्रांत प्रकाश में तथा अयथार्थ धारणाओं के कुहासे में देखने के लिए बाध्य करता है; वह वस्तुओं और व्यक्तियों के मूल्य-महत्त्व की मूर्खता-पूर्वक उपेक्षा कर देती है । इस प्रकार की बुद्धि प्रकाश को अंधकार और अंधकार को प्रकाश कहती है, जो धर्म सत्य नहीं है उसे ग्रहण कर लेती तथा उसे धर्म के रूप में प्रस्थापित करती है, जिस कार्य को करना उचित नहीं उसपर अड़ी रहती है और हमारे सामने उसका इस रूप में समर्थन करती है कि यही एकमात्न यथार्थ कर्तव्य है । इसका अज्ञान अजेय है और इसकी धृति या संकल्पगत दृढ़ता अपने अज्ञान की संतुष्टि एवं उसके जड़ अहंकार को दृढ़ता से पकड़े रहने में ही ५२७ है । यह सब इसकी अंध क्रिया का पहलू है; पर साथ ही जड़ता और क्लीवता का भारी दबाव, निर्जीवता और निद्रा में आसक्ति, मानसिक परिवर्तन और उन्नति में अरुचि, जो भय, शोक और विषाद हमारी प्रगति को रोकते हैं अथवा हमें हीनता, दुर्बलता और कायरता से भरे मार्गों में ही फंसाये रखते हैं उनके विषय में मन की उधेड़बुन--ये सब चीजें तामसिक संकल्प और बुद्धि के पीछे लगी रहती हैं । इसके लक्षण हैं--भीरुता, कातरता, छल-चातुरी, अलसता, अपने भयों, मिथ्या संदेहों, सतर्कताओं एवं कर्तव्य-विमुखताओं का और हमारी उच्चतर प्रकृति की पुकार से च्युति एवं पराङ्मुखता का मन के द्वारा समर्थन, न्यूनतम प्रतिरोधवाली दिशा का सुरक्षित अनुसरण जिससे कि हमें अपने परिश्रम का फल अर्जित करने में कष्ट, क्लेश और संकट कम-से-कम हो-यह कहती है कि चाहे कोई भी फल न मिले या केवल कोई अति तुच्छ फल ही मिले पर कोई महान् एवं श्रेष्ठ पुरुषार्थ या कठोर एवं संकटपूर्ण परिश्रम और साहस-कार्य न करना पड़े ।
राजसिक बुद्धि जब भ्रांति और अशुभ के लिए ही भ्रांति और अशुभ का चुनाव जान-बूझकर नहीं करती तब वह धर्म और अधर्म तथा कर्तव्य और अकर्तव्य में विभेद कर तो सकती है, पर ऐसा वह यथायथ रूप से नहीं बल्कि उनके यथार्थ मानो को तोड़-मरोड़कर तथा उनके मूल्यों को निरन्तर विकृत करके ही करती है और इसका कारण यह है कि इसका तर्क और संकल्प अहं का तर्क और कामना का संकल्प होते हैं और अहंता तथा कामना की ये शक्तियाँ अपने अहंमूलक उद्देश्य की सिद्धि के लिए सत्य और धर्म को अयथावत् निरूपित करती हैं तथा उन्हें, विकृत कर देती हैं । जब हम अहं और कामना से मुक्त होकर, केवल सत्य और उसके परिणामों से ही सम्बन्ध रखते हुए शान्त, शुद्ध, नि:स्वार्थ मन के द्वारा धीर-स्थिर भाव से वस्तुओं पर दृष्टिपात करते हैं केवल तभी हम उन्हें सही रूप से तथा उनके यथार्थ मूल्यों सहित देखने की आशा कर सकते हैं । परन्तु राजसिक संकलप-शक्ति अपने स्वार्थ एवं सुख का और जिसे वह धर्म एवं न्याय समझती है या समझना पसंद करती है उसका अनुसरण करती हुई अपनी आसक्तिपूर्ण आकांक्षाओं एवं कामनाओं की तृप्ति पर ही अपना ध्यान दृढ़तापूर्वक लगाये रहती है । इसकी प्रवृत्ति सदा इसी ओर होती है कि इन चीजों को ऐसा रूप दे दे जो इसकी अपनी कामनाओं का सर्वाधिक अनुरंजन तथा समर्थन करनेवाला हो और साथ ही, जो साधन इसे अपने कर्म और प्रयत्न का ईप्सित फल प्राप्त करने में सर्वोत्तम रूप से सहायता देते हों उन्हें यथार्थ या समुचित उद्घोषित करे । मानवीय बुद्धि और संकल्प के संपूर्ण असत्य और अनाचार में से तीन चौथाई का कारण ५२८ यही है । प्राणिक अहं पर प्रबल आधिपत्य रखनेवाला रजस् महान् पापी और सुनिश्चित कुमार्गदर्शक है ।
विश्व की गति, प्रवृत्ति और निवृत्ति का विधान, कर्तव्य और अकर्तव्य कर्म, जीव के लिए क्या निरापद है और क्या विपत्संकुल, किस चीज से डरने और पीछे हटने की जरूरत है और किस चीज का संकल्प के द्वारा आलिंगन करने की आवश्यकता है, कौन-सी वस्तु मनुष्य की आत्मा को बांधती है और कौन उसे बंधन से मुक्त करती है--इन सबको सात्त्विक बुद्धि इनके यथार्थ स्थान, यथार्थ रूप और यथार्थ मान में देखती है । अपने प्रकाश की माता के अनुसार, उच्चतम पुरुष एवं आत्मा की ओर अपने ऊर्ध्वमुख आरोहण में यह विकास की जिस अवस्था तक पहुँची है उसके अनुसार यह अपने सचेतन संकल्प की दृढ़ता के द्वारा इन्हीं चीजों का अनुसरण या वर्जन करती है । अभीप्साशील बुद्धि जब साधारण तर्कबुद्धि एवं मानसिक संकल्प से परे की वस्तुओं पर स्थिर रूप से एकाग्र हो जाती है, शिखरों की ओर उन्मुख रहती है, इन्द्रियों और प्राण के स्थिर नियंत्रण, मनुष्य की उच्चतम आत्मा, विश्वमय भगवान् एवं विश्वातीत आत्म-तत्त्व के साथ योग-युक्त होने में प्रवृत्त रहती है तब इसकी उस उच्च धृति के द्वारा सात्त्विक बुद्धि की चरम परिणति उपलब्ध होती है । सत्त्वगुण के द्वारा वहाँ पहुँचने पर ही मनुष्य गुणों को पार कर सकता है, मन और उसकी संकल्प-शक्ति एवं बुद्धि की सीमाओं के परे आरोहण कर सकता है और स्वयं सत्त्व भी उस तत्त्व में विलीन हो सकता है जो गुणों के ऊपर तथा इस यंत्र्यात्मक प्रकृति के परे है । वहाँ जीव ज्योति में सुप्रतिष्ठित तथा आत्मा अध्यात्म-सत्ता एवं भगवान् के साथ अविचल एकत्व के पद पर अधिरूढ़ हो जाता है । उस शिखर पर पहुँचकर हम अपने अंगों में दिव्य क्रिया की मुक्त स्वच्छंदता के साथ प्रकृति को परिचालित करने का भार परम देव के ऊपर छोड़ सकते हैं : क्योंकि वहाँ न तो कोई ऐसी अयुक्त या अस्त-व्यस्त क्रिया होती है और नहीं भ्रांति या अक्षमता का कोई ऐसा तत्त्व होता है जो आत्मा की ज्योतिर्मय सिद्धि एवं शक्ति को तमसाच्छन्न या विकृत कर सके । इन सब निम्न अवस्थाओं, निम्न धर्मों का हमपर कोई प्रभुत्व नहीं रहता; अनंत भगवान् मुक्त पुरुष के अन्दर कर्म करते हैं, वहाँ मुक्त आत्मा के अमर सत्य और धर्म के सिवाय और कोई धर्म नहीं होता, कोई कर्म तथा किसी प्रकार का बन्धन नहीं होता ।
सात्विक मन और प्रकृति के विशिष्ट गुण होते हैं सुसंगति और व्यवस्था,--अचंचल सुख, स्थिर और प्रसादपूर्ण संतोष, आभ्यंतरिक शान्ति और निवृति । नि:संदेह, सुख ही वह एकमात्र वस्तु है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमारी मानव- ५२९ प्रकृति का सार्वजनीन लक्ष्य है,--भले ही वह सुख हो या उसका आभास या उसकी कोई प्रतिकृति, मन, संकल्प-शक्ति, प्राणिक वासना या देह का कोई ऐश-आराम, भोग या तृप्ति । दुःख एक ऐसा अनुभव है जिसे हमारी प्रकृति अनिच्छा-पूर्वक, विश्व-प्रकृति की एक आवश्यकता, एवं एक अपरिहार्य घटना के रूप में स्वीकार करने को बाध्य होती है, या फिर वह इसे हमारी अभिलषित वस्तु के साधन के रूप में स्वेच्छापूर्वक भी अंगीकार करती है, पर वैसे दुःख कोई ऐसी वस्तु नहीं जिसे कोई स्वयं दुःख के लिए ही चाहता हो,--उस अवस्था की बात दूसरी है जब कि कोई विकृत चित्त के साथ इसकी चाहना करता है अथवा, इससे उत्पन्न होनेवाले उत्कट सुख या प्रचण्ड बल का कुछ स्पर्श पाने के लिए दु:ख भोगने का तीव्र उत्साह रखते हुए, एक काम्य वस्तु के रूप में इसकी कामना करता है । परंतु हमारी प्रकृति में जिस गुण की प्रधानता होती है उसके अनुसार सुख या भोग-विलास भी अनेक प्रकार का होता है । इस प्रकार तामसिक मन अपनी अलसता और जड़ता में, तन्द्रा एवं निद्रा में और अंधता एवं भ्रांति में सुसंतुष्ट रह सकता है । प्रकृति ने इसे मूढ़ता और अज्ञता में, गुहा के क्षीण आलोक, जड़ संतोष, क्षुद्र या निकृष्ट हर्षों एवं स्थूल सुखों में ही संतृप्त रहने का विशेष सौभाग्य प्रदान किया है । इस सुख-संतोष के आरंभ में भी मोह है और परिणाम में भी, पर फिर भी गुहा के निवासी को अपनी मोह-भ्रांतियों में एक तामसिक सुख प्राप्त रहता है जो किसी भी प्रकार सराहनीय न होता हुआ भी उसके लिए यथेष्ट होता है । तमस् और अज्ञान पर आधारित एक तामसिक सुख का भी अस्तित्व है ।
राजसिक मनुष्य का मन एक अधिक उग्र और मादक प्याले का रसास्वादन करता है; शरीर और इंद्रियों का तथा इंद्रियासक्त या प्रचंंड-गतिमय संकल्प एवं बुद्धि का तीव्र, चंचल एवं सक्रिय सुख ही उसके लिए जीवन का समस्त आनंद और जीवन-धारण का वास्तविक अर्थ होता है । प्रथम स्पर्श में तो यह सुख अधरों के लिए सुधामय होता है, परंतु प्याले के तल में एक प्रच्छन्न विष रखा होता है और पीने के बाद इसका परिणाम होता है निराशा की कटुता, वितृष्णा, क्लान्ति, विद्रोह, विराग, पाप, यातना, हानि, अनित्यता । और ऐसा होना अनिवार्य ही है क्योंकि इन सुखों के बाह्य रूप वे चीजें नहीं है जिन्हें हमारी अंतरस्थ आत्मा सचमुच में जीवन से प्राप्त करना चाहती है; बाह्य रूप की नश्वरता के पीछे और परे भी कोई चीज है; कोई चिरस्थायी, संतोषप्रद और स्वतःपर्याप्त वस्तु भी है । अतएव, सात्त्विक प्रकृति जिस चीज को प्राप्त करना चाहती है वह है उच्चतर मन तथा अंतरात्मा की परितृप्ति और जब वह एक बार अपनी खोज का यह बृहत् लक्ष्य प्राप्त कर लेती है तो अंतरात्मा का शुद्ध और निर्मल सुख, पूर्णता ५३० की एक अवस्था, स्थायी शांति और निर्वृत्ति प्राप्त हो जाती है । यह अध्यात्म-सुख बाह्य वस्तुओं पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह निर्भर करता है केवल हमारे अपने ऊपर और साथ ही हमारे अंदर जो कुछ भी सर्वश्रेष्ठ तथा अंतरतम है उसके प्रस्फुटन के ऊपर । परंतु शुरू-शुरू में यह सुख हमारी सामान्य संपदा नहीं होता; इसे आत्म-साधना, आत्मिक पुरुषार्थ और उच्च एवं कठोर प्रयास के द्वारा अर्जित करना होता है । आरंभ में इसका अर्थ होता है अभ्यस्त सुख की अत्यधिक हानि, बहुत अधिक कष्ट और संघर्ष हमारी प्रकृति के मंथन से, शक्तियों के दुःखदायी संघर्ष से उत्पन्न हलाहल, हमारे अंगों की दुष्प्रवृत्ति या प्राणिक चेष्टाओं के आग्रह के कारण परिवर्तन के प्रति अत्यधिक विद्रोह और विरोध, परंतु अंत में इस कटु गरल के स्थान पर अमृतत्व की सुधा समुद्भूत होती है और जैसे-जैसे हम उच्चतर आध्यात्मिक प्रकृति की ओर आरोहण करते जाते हैं वैसे-वैसे हमारे दुख का अंत होता जाता है, शोक-संताप का अनायास ही लोप होता जाता है । यही वह निरतिशय सुख है जो सात्त्विक साधना की परिणति की चरम चूड़ा या सीमा पर हमारे ऊपर अवतरित होता है ।
सात्त्विक प्रकृति का आत्म-अतिक्रमण केवल तभी संपन्न होता है जब हम महान् पर अभी भी अपेक्षाकृत हीन सात्त्विक सुख से परे, मानसिक ज्ञान और पुण्य एवं शांति से मिलनेवाले सुखों से परे जाकर आत्मा की शाश्वत शांति और दिव्य एकत्व का आध्यात्मिक परमानंद प्राप्त कर लेते हैं । वह आध्यात्मिक सुख तब सात्त्विक 'सुख' न रहकर परिपूर्ण आनंद हो जाता है । आनंद ही वह गुप्त तत्त्व है जिससे सब वस्तुएँ उत्पन्न हुई हैं, जिसके द्वारा सब वस्तुएँ जीवित रहती हैं और जिसकी ओर वे अपनी आध्यात्मिक परिणति के समय उन्नीत हो सकती हैं । उस आनंद की उपलब्धि केवल तभी हो सकती है जब मुक्त व्यक्ति अहंकार और उसकी कामनाओं से मुक्त होकर, अंततोगत्वा अपने उच्चतम आत्मा से, सर्व भूतों से तथा परमेश्वर से एकीभूत होकर अध्यात्मसत्ता के पूर्णतम आनंद में निवास करता है । ५३१ |